इतिहास

केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान (समतुल्य विश्वविद्यालय), पांच दशकों की अपनी गौरवपूर्ण यात्रा में भारतवर्ष में मत्स्य शिक्षा के क्षेत्र में एक अग्रणी संस्थान बनकर उभरा है । देश में विविध मत्स्य विकास कार्यक्रमों के नियोजन, क्रियान्वयन एवं व्यवस्थापन हेतु योग्य एवं प्रशिक्षित मानव संसाधनों के विकास के लिए केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान प्रतिबध्द है ।

संस्थान का विकास एवं उसका संक्षिप्त इतिहास

(भारत सरकार के अंतर्गत एक शैक्षणिक संस्थान):

केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान अन्तराष्ट्रीय खाद्य एवं कृषि संगठन तथा संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रमों के सहयोग से भारत सरकार द्वारा 6 जून 1961 को स्थापित किया गया । केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान की स्थापना का मुख्य उद्देश्य मुख्यत: हमारे देश के सेवारत मात्स्यिकी कार्मिकों को स्नातकोत्तर शिक्षा एवं प्रशिक्षण प्रदान करना था जिससे देश में मत्स्य विकास गतिविधियों को मजबूती प्राप्त हो । के. मा. शि. सं. ने अपना कार्य विज्ञान भवन के संस्थान, बाम्बे (अब, मुंबई) से शुरू किया था और प्रारंभ में शैक्षणिक कार्यक्रमों को तीन विभागों में संगठित किया गया; ये क्रमश: मत्स्य जीवविज्ञान, मत्स्य तकनीकी एवं मत्स्य अर्थशास्त्र थे जो मत्स्य विज्ञान (डी.एफ.एससी.) में दो वर्षीय स्नातकोत्तर उपाधि पत्र प्रदान करते थे । संस्थान 1964 में मस्जिद बंदर बाम्बे में स्थानान्तरित हो गया । इसी समय उच्च मानकों के उपयुक्त उपकरण प्रदान कर संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ.ए.ओ.) ने भारत सरकार के साथ मिलकर के. मा. श़ि. सं. की आधारभूत संरचना के सशक्तिकरण हेतु सक्रिय रूप से सहयोग किया । समुद्री मात्स्यिकी, मत्स्य जीवविज्ञान एवं समुद्रविज्ञान के क्षेत्र में ऑन बोर्ड प्रशिक्षण एवं बुनियादी सुविधा हेतु खाद्य एवं कृषि संगठन व संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के सहयोग से 1968 में संस्थान को मत्स्य जलयान, एम.एफ.वी हारपोडॉन प्राप्त हुआ । संस्थान का मुख्यालय 1967 में वर्सोवा स्थित अपने स्वयं के भवन में आ गया और अक्टूबर 1967 में ही उसे केन्द्रीय अन्त:स्थलीय मात्स्यिकी प्रशिक्षण केन्द्र (सी.आई.एफ. आर.आई.), बैरकपुर, पश्चिम बंगाल से अन्त:स्थलीय मत्स्य क्रियात्मक प्रशिक्षण के उपकेन्द्रों के रूप में संगठित किया गया । बाद में ये उपकेन्द्र लखनऊ (उ.प्र.) के पास चिन्हट में एवं काकीनाडा में स्थानान्तरित कर दिए गए ।

आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा सितम्बर 1968 में खारापानी जलकृषि काकीनाडा में एवं 1973 में मीठापानी जलकृषि का बालभद्रपुरम में स्थानांतरण कर दिए जाने से जलीय खेती संबंधी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ती पर्याप्त रूप से हुई । बाम्बे विश्वविद्यालय ने 1967 में केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान को एम.एफ.एससी. और प्रायोगिक जीव विज्ञान एवं जीवरसायन के क्षेत्र में पीएच.डी. कार्यक्रमों में अनुसंधान की मान्यता प्रदान की । अन्य संस्थानों जैसे आई.आई.टी. मुम्बई, आई.आई.टी. खडगपुर और मैंगलोर विश्वविद्यालय ने भी इसे पीएच.डी. कार्यक्रमों हेतु अध्ययन केन्द्र के रूप में मान्यता प्रदान की ।

भा.कृ.अनु.प. के प्रशासकीय नियंत्रण के अधीन:

संस्थान का प्रशासकीय नियंत्रण 1 अप्रैल 1979 को भा.कृ.अनु.प. द्वारा ले लिया गया । अपने शैक्षणिक कार्यक्रमों के साथ ही अनुसंधान और विस्तार कार्यक्रमों को बढाने के लिए केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान के चार्टर को बढा दिया गया । स्थापना के समय के तीन विभागों से बढाकर छटवीं पंचवर्षीय योजना के काल में संस्थान में चार और विभाग जोड दिए गए । संस्थान को दिसम्बर 1982 में एन.ओ.आर.ए. डी. के सहयोग से प्रशिक्षण एवं अनुसंधान जलयान (एम.एफ.वी.सरस्वती) प्राप्त हुआ । जिसके कारण संस्थान के समुदी मात्स्यिकी एवं समुद्रविज्ञान के ऑनबोर्ड कार्यक्रमों को बल मिला । इसी दौरान मीठापानी जलकृषि में प्रशिक्षण सुविधा को भी बल मिला जब 1983 में म. प्र. सरकार द्वारा पवारखेडा में 100 एकड जलकृषि परिक्षेत्र प्राप्त हुआ । इसी समय लखनऊ स्थित चिन्हट प्रशिक्षण केन्द्र को अन्त:स्थलीय मात्स्यिकी क्रियात्मक प्रशिक्षण केन्द्र आगरा से स्थानांन्तरित करने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार से ले लिया गया ।

सन 1984 में बाम्बे विश्वविद्यालय से सम्बद्धता प्राप्त, मात्स्यिकी प्रबंधन में एम.एससी. पाठयक्रम प्रारंभ किया गया । डी.एफ.एससी. और सर्टिफिकेट पाठयक्रमों में शोधपरकता को आवश्यक रूप से शामिल किया गया । भा.कृ.अनु.प. एवं कृषि मंत्रालय द्वारा 1985 में केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान को समतुल्य विश्वविद्यालय का स्तर प्रदान करने हेतु एक संकल्प पारित किया गया । इसी समय हरियाणा के सुल्तानपुर में मैदानी लवणीय जलकृषि हेतु क्रियात्मक अनुसंधान परियोजना (ओ.आर.पी.) प्रारंभ की गई । सातवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान तब के सात विभागों को बढाते हुए तीन और विभाग जोडे गए । व्यापक स्तर पर हुई इन गतिविधियों के परिणामस्वरूप; केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान के कार्मिकों की संख्या जो 1961 में 19 थी, बढकर 1985 में 398 हो गई ।

समतुल्य विश्वविद्यालय का दर्जा:

मात्स्यिकी के अंतर्गत मानव संसाधन विकास में अग्रगामी भूमिका निभाने के कारण केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान को 1989 में समतुल्य विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान किया गया, जो इसके लिए सर्वथा उपयुक्त भी था । इस प्रकार के.मा.शि.सं. को देश में प्रथम मात्स्यिकी विश्वविद्यालय होने का गौरव प्राप्त हुआ । इसके साथ ही जो एम.एस. सी. और पीएच.डी. कार्यक्रम बाम्बे विश्वविद्यालय की सम्बदधता के अंतर्गत चल रहे थे; अब वे के.मा.शि.सं. के शैक्षणिक क्षेत्र के अंतर्गत आ गए । एम.एससी शैक्षणिक कार्यक्रम को 1995 के दौरान एम.एफ.एससी (मात्स्यिकी में स्नातकोत्तर) के रूप में पुन: प्रस्तुत किया गया । ये एम.एफ.एससी. कार्यक्रम तीन विशेषीकृत क्षेत्रों में प्रारंभ किए गए; जलीय संवर्धन के मात्स्यिकी संसाधन प्रबंधन (एफ.आर.एम.), अंत:स्थलीय जलकृषि (आई.ए.सी.) एवं जलीय संवर्धन । इसी वर्ष के दौरान जलीय सवंर्धन की तरह एम.एफ.एससी. और पीएच.डी. पाठयक्रम जो कोचीन विज्ञान एवं तकनीक विश्वविद्यालय की संम्बधता के अंतर्गत चल रहे थे; अब के.मा.शि.सं. के अंतर्गत आ गए ।

Fकाकीनाडा और चिन्हट केन्द्रों से मत्स्य विस्तार एवं अन्त:स्थलीय मात्स्यिकी क्रियात्मक प्रबंधन में कराए जाने वाले एकवर्षीय स्नातकोत्तर प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम को 1995 की पंचवर्षीय निरीक्षण टीम की अनुशंसाओं के अनुपालन में; शैक्षणिक सत्र 1995-96 में समाप्त कर दिया गया । केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान के अंतर्गत मात्स्यिकी विज्ञान में स्नातकोत्तर स्तर के सी.आई.एफ.ए., भुवनेश्वर में एवं सी.आई.एफ.टी. कोची में क्रमश: दो कार्यक्रम प्रारंभ हुए; मीठापानी जलकृषि एवं प्रग्रहणोपरांत तकनीक । स्नातकोत्तर स्तर के इन कार्यक्रमों को प्रारंभ कर सहयोगात्मक शैक्षणिक प्रयासों की अनुकरणीय प्रवृत्ति का विकास किया गया ।

केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान को प्रत्यायन / प्रमाणन प्रदाय:

कृषि शिक्षा प्रणाली में प्रमाणन प्रक्रिया द्वारा उच्च शिक्षा में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के सुनिश्चितकरण हेतु, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा एक अभिनव प्रयास किया गया । इसी के अनुपालन में केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान ने सांस्थानिक प्रत्यायन/प्रमाणन प्रक्रिया वर्ष 2001 में प्रारंभ किया । इस उद्देश्य की पूर्ती हेतु बनाए गए विभिन्न कार्यबलों से केन्द्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान के कई क्षेत्रों एवं पहलुओं की जानकारियां एवं आंकडे एकत्रित किए गए । इन एकत्र किए गए आंकडो एवं उपलब्ध प्रलेखों को ''आत्मावलोकन प्रतिवेदन'' प्रकाशित करने के लिए परिवर्धित एवं संपादित किया गया । यह ''आत्मावलोकन प्रतिवेदन'' 218 पृष्ठों सहित 12 खण्डों में विभक्त था । इन खण्डों के अंतर्गत 12 परिशिष्ट, 31 तालिकाएं एवं 27 चित्र थे । इस आत्मावलोकन प्रतिवेदन को 19 नवम्बर 2001 को भा.कृ.अनु.प., प्रत्यायन मण्डल को सौंप दिया गया ।

प्रत्यायन हेतु आत्मावलोकन प्रतिवेदन को महानिदेशक, भा.कृ.अनु.प., नई दिल्ली द्वारा गठित निरीक्षण दल के समूह द्वारा विधिमान्य किया गया । के.मा.शि.सं. एवं इसके स्नातकोत्तर केन्द्रों के संदर्भ में निरीक्षण दल द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन की अनुक्रिया में; ''चुनौतियों से कैसे पार हुआ जाए एवं सुझावों को लागू कैसे किया जाए'' के संबंध में टिप्पणियों एवं विचारों को 3 दिसम्बर 2003 को परिषद को सौंपा गया । भा.कृ.अनु.प., नई दिल्ली के प्रत्यायन मण्डल ने, भा.कृ.अनु.प., के निरीक्षण दल के समूह की अनुशंसाओं के आधार पर, के.मा.शि.सं., मुंबई को प्रत्यायन प्रदान किया एवं 25 अगस्त 2004 को प्रत्यायन मण्डल द्वारा प्रत्यायन पत्र जारी किया गया । के.मा.शि.सं., मुंबई को प्रदान किए गए प्रत्यायन स्तर को ध्यान में रखते हुए, संस्थान ने आगे कदम बढाते हुए अपने यहां कराए जाने वाले सभी एम.एफ.एससी. (मात्स्यिकी में स्नातकोत्तर) और पीएच. डी. कार्यक्रमों में पाठ्यक्रम कार्ययोजना चालू की । प्रत्यायन ने संस्थान को सभी शैक्षणिक कार्यक्रमों को प्रभावी तरीके से सम्पन्न कराने में सहायता की है ।

आई.एस.ओ. प्रमाणन:

मार्च 2013 के दौरान आयोजित मूल्यांकन एवं के.मा.शि.सं. के गुणवत्ता प्रबंधन प्रणाली की क्रियान्वित के आधार पर के.मा.शि.सं. को आधारभूत प्रमाणन (बी.एस.सी.आई.सी.) द्वारा आई.एस.ओ. 9001:2008 प्रमाणन प्रदान किया गया । अत: यह संस्थान मात्स्यिकी के विशेषीकृत क्षेत्रों में योग्य मानव संसाधनों के विकास हेतु आई.एस.ओ. 9001:2008 प्रमाणन'' की आवश्यकताओं का अनुपालन करता है । इसके अंतर्गत गुणवत्ता नीति, सतत सुधार हेतु प्रेरित करती है एवं छात्रों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दृढता प्रदान करती है । यह प्रक्रिया नियमित प्रबंधन निरीक्षण बैठकों एवं गुणवत्ता लक्ष्यों के निर्माण द्वारा आंतरिक संप्रेषण के सुधार की सुविधा प्रदान करती है । आई.एस.ओ. स्तर द्वारा प्रशिक्षित निरीक्षणकर्ताओं को संस्थान की प्रणाली का नियमित रूप से निरीक्षण का अवसर मिलता है और इस प्रकार पूरी प्रणाली अद्यतन बनी रहती है । प्रलेखों एवं अभिलेखों की नियंत्रण की प्रणाली, अभिलेखों के नियत स्थान का पता करने एवं उनकी पुर्नप्राप्ति में आई.एस.ओ. प्रमाणन सहायक है । आई.एस.ओ. 900:2008 प्रणाली लागू होने से ऐसे उत्पादों एवं प्रक्रिया की पहचान करने में मदद मिलेगी जो आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं है और इसके साथ ही उपयुक्त सुधारात्मक कार्यों में मदद मिलेगी ।